ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित, छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा ने अपनी कविता ‘जाग तुझको दूर जाना‘ के माध्यम से जीवात्मा रूपी राही को जीवन पथ पर जागृत होकर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। भौतिक एवं सांसारिक अर्थ में कवयित्री जीवन पथ पर अपने उद्देष्य की प्राप्ति के लिए अग्रसर साधक को प्रेरणा देती हैं एवं आध्यात्मिक अर्थ में आत्मा को परमात्मा से मिलन के लिए प्रयत्नषील रहने की प्रेरणा देती हैं। यद्यपि परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग अनेक कठिनाइयों से भरा है, फिर भी हमें हताष एवं निराष होकर बैठना नहीं है बस दृढ़ आत्मविष्वास और उत्साहपूर्वक आगे बढ़कर अपनी मंजिल को पाना है। महादेवी वर्मा अपने मन (जीवात्मा रूपी पथिक) को सम्बोधित करती हुई कहती हैं: ‘‘चिर सजग आँखें उनींदी, आज कैसा व्यस्त बाना। जग तुझको दूर जाना‘‘- लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग मे आनेवाली भौतिक बाधाओं का वर्णन करते हुए वे कहती हैं कि चाहे कैसी भी प्राकृतिक आपदा आ जाए, हिमालय काँप उठे, बिजलियाँ चमकने लगे, प्रलय आ जाए या निठुर तूफान टूट पड़े, हमें अपनी यात्रा जारी रखते हुए इस नाष पथ पर अपने चरण चिह्न छोड़ जाना है। आगे कवयित्री हमें सांसारिक आकर्षणों, सुखों एवं बन्धनों में न बंधने एवं इनसे विरक्त रहते हुए अपने साधना पथ पर अग्रसर रहने का संदेष देती है। जीवन की रंगीनियों में फंसकर हमें अपने जीवन के शाष्वत सुखों से मुँह नहीं फेरना चाहिए। मोम के सजीले बन्धन, भौरों की मधुर गुनगुन, ओंस की बूंदों से भीगे पुष्पदल, तितलियों के रंग-बिरंगे पंख जीवन के क्षणिक सुख है। क्या हम इन सबके प्रति आकर्षित होकर विश्व का क्रन्दन यानि यथार्थ को भूल जाएँगे? कवयित्री आगे जीवात्मा को सम्बोधित करते हुए उसे अपने वज्र जैसे कठोर हृदय को अश्रुकणों से न गलाने अर्थात् दुःख की घड़ी में कातर न होने, आलस्य एवं प्रमाद त्यागकर अपने जीवन रूपी अमृृता को अमरत्व प्राप्ति की तलाष में लगाने को कहती हैं। वह (जीवात्मा) अमरता पुत्र है, वह क्यों व्यर्थ में अपनी साधना की आँधी को मलय पर्वत से बहने वाली सुगन्धित वायु का सहारा लेकर सुला देना चाहता है: ‘‘अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?‘‘ वास्तव में ‘जीवात्मा‘ की यात्रा ‘परमात्मा‘ से मिलन के बिना अधूरी है। अतः जब तक मिलन न हो जाए, अमरत्व की प्राप्ति नहीं होगी और संसार के आकर्षण जाल अभिषाप बनकर उसे उसके कर्त्तव्य पथ से विचलित कर देंगे। आगे कवयित्री जीवात्मा को कमजोर पड़कर अपनी असफलता की कहानी ठंडी आहें-भरकर सुनाने और अपनी कायरता प्रकट करने से मना करती हुई कहती है:
‘‘कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी, आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी।‘‘ जब हमारे हृदय में प्रियतम रूपी परमात्मा से मिलन की आग होगी, तभी उनके विरह में आँखों में सजेंगे और इन्हीं आंसुओं की तड़प से परमात्मा पिघल सकते हैं, जिससे मिलन में बाधा नहीं होगी। यदि इस साधना पथ पर बढ़ते हुए हमारी हार भी हो जाए, तो भी हमें निराष नहीं होना है क्यों कि ‘‘हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका‘‘ हमें पतंगे की तरह दीपक के प्रेम में जलकर राख बनने एवं अपने प्रेम को अमर दीपक का हिस्सा बनाकर अमरत्व प्राप्ति की ओर अग्रसर रहना चाहिए और साधना के पथ पर यानि अंगारों की शैय्या पर तपस्या रूपी कलियाँ बिछानी चाहिए एवं उस अज्ञात प्रियतम से मिलन के लिए प्रयत्नषील रहना चाहिए। महादेवी वर्मा के काव्यसंग्रह ‘सान्ध्यगीत‘ से ली गई इस कविता में उन्होंने प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग कर शाब्दिक एवं गूढ़ार्थ दोनों में जीवन पथ पर आगे बढ़ने वाले पथिक एवं परमात्मा से मिलन के लिए व्याकुल ‘जीवात्मा‘ को प्रेरित किया है।ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित, छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा ने अपनी कविता ‘जाग तुझको दूर जाना‘ के माध्यम से जीवात्मा रूपी राही को जीवन पथ पर जागृत होकर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। भौतिक एवं सांसारिक अर्थ में कवयित्री जीवन पथ पर अपने उद्देष्य की प्राप्ति के लिए अग्रसर साधक को प्रेरणा देती हैं एवं आध्यात्मिक अर्थ में आत्मा को परमात्मा से मिलन के लिए प्रयत्नषील रहने की प्रेरणा देती हैं। यद्यपि परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग अनेक कठिनाइयों से भरा है, फिर भी हमें हताष एवं निराष होकर बैठना नहीं है बस दृढ़ आत्मविष्वास और उत्साहपूर्वक आगे बढ़कर अपनी मंजिल को पाना है। महादेवी वर्मा अपने मन (जीवात्मा रूपी पथिक) को सम्बोधित करती हुई कहती हैं: ‘‘चिर सजग आँखें उनींदी, आज कैसा व्यस्त बाना। जग तुझको दूर जाना‘‘- लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग मे आनेवाली भौतिक बाधाओं का वर्णन करते हुए वे कहती हैं कि चाहे कैसी भी प्राकृतिक आपदा आ जाए, हिमालय काँप उठे, बिजलियाँ चमकने लगे, प्रलय आ जाए या निठुर तूफान टूट पड़े, हमें अपनी यात्रा जारी रखते हुए इस नाष पथ पर अपने चरण चिह्न छोड़ जाना है। आगे कवयित्री हमें सांसारिक आकर्षणों, सुखों एवं बन्धनों में न बंधने एवं इनसे विरक्त रहते हुए अपने साधना पथ पर अग्रसर रहने का संदेष देती है। जीवन की रंगीनियों में फंसकर हमें अपने जीवन के शाष्वत सुखों से मुँह नहीं फेरना चाहिए। मोम के सजीले बन्धन, भौरों की मधुर गुनगुन, ओंस की बूंदों से भीगे पुष्पदल, तितलियों के रंग-बिरंगे पंख जीवन के क्षणिक सुख है। क्या हम इन सबके प्रति आकर्षित होकर विश्व का क्रन्दन यानि यथार्थ को भूल जाएँगे? कवयित्री आगे जीवात्मा को सम्बोधित करते हुए उसे अपने वज्र जैसे कठोर हृदय को अश्रुकणों से न गलाने अर्थात् दुःख की घड़ी में कातर न होने, आलस्य एवं प्रमाद त्यागकर अपने जीवन रूपी अमृृता को अमरत्व प्राप्ति की तलाष में लगाने को कहती हैं। वह (जीवात्मा) अमरता पुत्र है, वह क्यों व्यर्थ में अपनी साधना की आँधी को मलय पर्वत से बहने वाली सुगन्धित वायु का सहारा लेकर सुला देना चाहता है: ‘‘अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?‘‘ वास्तव में ‘जीवात्मा‘ की यात्रा ‘परमात्मा‘ से मिलन के बिना अधूरी है। अतः जब तक मिलन न हो जाए, अमरत्व की प्राप्ति नहीं होगी और संसार के आकर्षण जाल अभिषाप बनकर उसे उसके कर्त्तव्य पथ से विचलित कर देंगे। आगे कवयित्री जीवात्मा को कमजोर पड़कर अपनी असफलता की कहानी ठंडी आहें-भरकर सुनाने और अपनी कायरता प्रकट करने से मना करती हुई कहती है:
‘‘कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी, आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी।‘‘ जब हमारे हृदय में प्रियतम रूपी परमात्मा से मिलन की आग होगी, तभी उनके विरह में आँखों में सजेंगे और इन्हीं आंसुओं की तड़प से परमात्मा पिघल सकते हैं, जिससे मिलन में बाधा नहीं होगी। यदि इस साधना पथ पर बढ़ते हुए हमारी हार भी हो जाए, तो भी हमें निराष नहीं होना है क्यों कि ‘‘हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका‘‘ हमें पतंगे की तरह दीपक के प्रेम में जलकर राख बनने एवं अपने प्रेम को अमर दीपक का हिस्सा बनाकर अमरत्व प्राप्ति की ओर अग्रसर रहना चाहिए और साधना के पथ पर यानि अंगारों की शैय्या पर तपस्या रूपी कलियाँ बिछानी चाहिए एवं उस अज्ञात प्रियतम से मिलन के लिए प्रयत्नषील रहना चाहिए। महादेवी वर्मा के काव्यसंग्रह ‘सान्ध्यगीत‘ से ली गई इस कविता में उन्होंने प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग कर शाब्दिक एवं गूढ़ार्थ दोनों में जीवन पथ पर आगे बढ़ने वाले पथिक एवं परमात्मा से मिलन के लिए व्याकुल ‘जीवात्मा‘ को प्रेरित किया है।